आनंद में एक आकर्षण है, एक सम्मोहन है
धर्मग्रंथों का उद्घोष है कि मनुष्य मात्र की उत्पत्ति आनंद से हुई है। जरा आप सोचें कि आपको आनंद की भूख क्यों है? आपको सुख पाने की बेचैनी क्यों है? शांति की तलाश में आप क्यों भटक और तड़प रहे हैं? यह सब आपको क्यों चाहिए? क्या आपने इस बात पर कभी विचार किया है? क्या आपको कभी यह अनुभूति नहीं होती है कि यह कहीं न कहीं मनुष्य के स्वभाव में है? प्राकृतिक गुण होने की वजह से आप जहां भी जाते हैं, उस स्थान पर नएपन से आनंद का अनुभव होता है। आप जो कुछ भी करते हैं, उसमें आनंद की लहरें आती हैं। यही नहीं जो कुछ भी खाते-पीते हैं उसमें आनंद का अनुभव होता है। यह एक प्राकृतिक गुण है, परंतु जो अहसास होता है वह कुछ देर के लिए। जो अनुभव होता है वह कुछ समय के लिए। सुगंध-स्वाद में ज्यादा समय के लिए टिकाऊपन नहीं होता।
आनंद में एक आकर्षण है, एक सम्मोहन है। जाने-अनजाने में हर कोई इसी रास्ते पर जा रहा है। सोता हुआ व्यक्ति भी निद्रा में आनंद लेना चाहता है। वृक्ष की छाया में बैठकर आराम करने में भी आनंद ले रहा है। खाने-पीने में, काम करने में यदि आनंद नहीं है, तो वह इसे छोड़ देना चाहता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं है।
ध्यान रखें कि संबंधों में जितने भी दायरे हैं, उन सभी में आनंद ही है, जिसने आशा की डोर से उन्हें बांध रखा है। क्या पदाथोर्ं के अवलोकन मात्र से, कुछ घटनाओं के घटित हो जाने से वास्तविक आनंद की प्राप्ति होगी? बाहरी दुनियादारी के पदार्र्थो में तो केवल अहसास है, प्राप्ति नहीं। आनंद स्वयं में है, यह भीतर घटित होने की एक अवस्था है। इसलिए यह जानना जरूरी है कि सांसारिक पदार्थों का भोग और अनुभूति मात्र एक छलावा है। परमानंद तो आपके अंतस में ही घटित हो सकता है। आप यह मत सोचें कि जो आनंद आपको उस झरने के पास बैठकर हुआ, वह उस झरने की देन है। इस भूल में भी मत रहना कि जो प्रेम का आनंद उस प्रेमी या प्रेमिका के साथ मिलन में मिला था, वह उस प्रेमी या प्रेमिका की देन है। यह आनंद तो हमेशा आप में है, जो प्रतीक्षा करता है, बाहर आ जाने के लिए। जब कभी भी कुछ घटता है, आनंद की दो-चार बूंदें छलक जाती हैं।

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