अपनी देह दान कर समाज में चेतना जगाने वाले त्याग की मूर्ति सनातन धर्म के पुरोधा, महर्षि दधीचि की जयंती पर भारत के सभी सनातनियो को मेरी शुभकामनाएँ ।
कहानी महर्षि दधीचि की :-
देवताओं की प्राण रक्षा के लिए किया था अपनी अस्थियों का दान :
एक बार देवराज इंद्र के मन में अभिमान पैदा हो गया जिसके फलस्वरूप उसने देवगुरु बृहस्पति का अपमान कर दिया। उसके आचरण से क्षुब्ध होकर देवगुरु इंद्रपुरी छोड़कर अपने आश्रम में चले गए। बाद में जब इंद्र को अपनी भूल का आभास हुआ तो वह बहुत पछताया, क्योंकि अकेले देवगुरु बृहस्पति ही ऐसे व्यक्ति थे, जिनके कारण देवता, दैत्यों के कोप से बचे रहते थे।
पश्चाताप करता इंद्र देवगुरु को मनाने के लिए उनके आश्रम में पहुंचा। उसने हाथ जोड़कर देवगुरु को प्रणाम किया और कहा, “आचार्य। मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया था। उस समय क्रोध में भरकर मैंने आपके लिए जो अनुचित शब्द कह दिए थे, मैं उनके लिए आपसे क्षमा मांगता हूं। आप देवों के कल्याण के लिए पुनः इंद्रपुरी लौट चलिए। हम सारे देव मिलकर आपकी भली-भांति सेवा…।” इंद्र का शेष वाक्य अधूरा ही रह गया क्योंकि देवगुरु अपने तपोबल से अदृश्य हो चुके थे। इंद्र ने उनकी बहुत खोज की किन्तु जब देवगुरु का कुछ पता न चला तो वह थक-हार कर इंद्रपुरी लौट गया।
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दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने जब यह समाचार सुना तो उन्होंने दैत्यों से कहा, “दैत्यों ! यही अवसर है जब तुम देवलोक पर अधिकार कर सकते हो। आचार्य बृहस्पति के चले जाने के बाद देवों की शक्ति आधी रह गई है। तुम लोग चाहो तो अब आसानी से देवलोक पर अधिकार कर सकते हो।”
उचित अवसर देखकर दैत्यों ने अमरावती को चारों ओर से घेर लिया और चारों और मार-काट मचा दी। इंद्र किसी तरह जान बचाकर वहां से भाग निकला और पितामह ब्रह्मा की शरण में पहुंच गया।
वह करबद्ध होकर ब्रह्माजी से बोला, “पितामह, देवों की रक्षा कीजिए। दैत्यों ने अचानक हमला करके अमरावती में मार-काट मचा दी है। वे चुन-चुनकर देव योद्धाओं का वध कर रहे है। मैं किसी तरह जान बचाकर यहां तक पहुंचा हूं।”
पितामह ब्रह्मा आचार्य बृहस्पति के देवलोक छोड़ जाने की बात सुन चुके थे। बोले, “यह सब तुम्हारे अहंकार के कारण हुआ है, देवराज। अब भी यदि तुम आचार्य बृहस्पति की मना सको और उन्हें देवलोक में ले आओ तो वे दैत्यों पर विजय प्राप्त करने का कोई उपाय तुम्हे बता देंगे।
“मैं अपनी भूल पर बहुत पश्चाताप करता उन्हें खोजने के लिए गया था, पितामह। किन्तु मेरे देखते ही देखते वे अपने तपोबल से अदृश्य हो गए।” इंद्र ने कहा।
“आचार्य तुमसे कुपित है, इंद्र।” ब्रह्माजी ने कहा, “अब जब तक तुम उनकी आराधना करके उन्हें स्वयं सम्मानपूर्वक देवलोक नहीं ले जाओगे, वे अमरावती नहीं आएंगे।”
“फिर क्या किया जाए, पितामह ? आचार्य का कुछ पता-ठिकाना भी तो हमारे पास नहीं है। उन्हें खोजने में समय लगेगा। तब तक तो दैत्य सम्पूर्ण अमरावती को जलाकर राख कर देंगे।”
इंद्र की बात सुनकर ब्रह्माजी ने अपने नेत्र बन्द कर लिए। वे चिंतन में डूब गए। कुछ देर बाद उन्होंने अपने नेत्र खोले और इंद्र से कहा, “इंद्र ! इस समय भूमण्डल में सिर्फ एक ही व्यक्ति है जो तुम्हे इस आपदा से मुक्ति दिला सकता है और वह है महर्षि त्वष्टा का महाज्ञानी पुत्र विश्वरूप। अगर तुम उसे अपना पुरोहित नियुक्त कर लो तो वह तुम्हें इस संकट से मुक्त करा देगा।”
ब्रह्मा जी ने उपाय बताया।
पितामह का परामर्श मानकर देवराज इंद्र महर्षि विश्वरूपं के पास पहुंचे। विश्वरूप के तीन मुख थे। पहले मुख से वे सोमवल्ली लता का रस निकालकर यज्ञ करते समय पीते थे। दूसरे मुख से मदिरा पान करते तथा तीसरे मुख से अन्न आदि भोजन का आहार करते थे। इंद्र ने उन्हें प्रणाम किया तो महर्षि ने पूछा, “आज यहां कैसे आगमन हुआ, देवराज ? आप किसी विपत्ति में तो नही फंस गए ?”
“आपने ठीक अनुमान लगाया है मुनिश्रेष्ठ।” इंद्र ने कहा, “देवो पर इस समय बहुत बड़ी विपत्ति आई हुई है, दैत्यों ने अमरावती को घेर रखा है। चारो ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है।”
विश्वरूप मुस्कुराए। बोले, ” तो देवो और दैत्यों का पुराना झगड़ा है, देवराज। दोनों हो महर्षि कश्यप की सन्ताने है। इसलिए कोई एक-दूसरे से छोटा नहीं बनना चाहता। तुम्हारे इस झगड़े में मैं क्या कर सकता हूं ?”
“देवो को इस समय आपकी सहायता की आवश्यकता है मुनिश्रेष्ठ। सिर्फ आप ही उनका भय दूर कर सकते है।”
इस प्रकार इंद्र ने जब विश्वरूप की बहुत अनुनय-विनय की तो विश्वरूप पिघल गए। उन्होंने देवो के यज्ञ का होता (पुरोहित) बनना स्वीकार कर लिया। वे बोले, “देवो की दुर्दशा देखकर ही मैने आपके यज्ञ का होता बनना स्वीकार किया है, देवराज।”
ततपश्चात उन्होंने देवराज को नारायण कवच प्रदान करते हुए कहा, “यह कवच ले जाओ देवराज। दैत्यों से युद्ध करते समय यह न सिर्फ तुम्हारी रक्षा करेगा बल्कि तुम्हे विजयश्री भी प्रदान करेगा।”
विश्वरूप से नारायण कवच प्राप्त करके देवराज पुनः अमरावती पहुंचे। उनके वहां पहुचने से देवो में नए उत्साह का संचरण हो गया और वे पूरी शक्ति के साथ दैत्यों पर टूट पड़े। भयंकर युद्ध छिड़ गया। इस बार इंद्र के पास नारायण कवच होने के कारण दैत्य मैदान में नहीं ठहर सके। वे पराजित होकर भाग खड़े हुए। विजयश्री देवताओं के हाथ लगी।
युद्ध समाप्त होने पर देवराज विश्वरूप का आभार व्यक्त करने के लिए उनके पास पहुंचे। बोले, “आपकी कृपा से हमने दैत्यों पर विजय प्राप्त कर ली है, मुनिवर। अब हम एक इस यज्ञ करना चाहते है जिसके फलस्वरूप देवलोक हमेशा के लिए दैत्यों के भय से मुक्त रह सके। और आप हमे वचन दे ही चुके है कि उस यज्ञ के होता होंगे, तो कृपा करके अब आप हमारे साथ चलिए।”
देवराज के अनुरोध पर विश्वरूप अमरावती पहुंचे। उन्होंने यज्ञ में आहुतियां डालनी आरम्भ कर दी। उसी समय एक दैत्य ब्राह्मण का वेश धारण कर महर्षि विश्वरूप के पास आ बैठा। उसने धीरे से महर्षि विश्वरूप से कहा, “महर्षि ! देवताओं का पक्ष लेकर आप जो यह यज्ञ दैत्यों के विनाश के लिए कर रहे है, यह उचित नहीं है।”
“क्यों उचित नहीं है ?” विश्वरूप ने पूछा।
“इसलिए उचित नहीं है कि देव और दैत्य एक ही पिता की सन्ताने है। आप भूल रहे है कि स्वयं आपकी माताजी दैत्य परिवार से है। क्या आप चाहेंगे कि आपका मातृकुल हमेशा के लिए नष्ट हो जाए ?”
बात विश्वरूप की समझ में आ गई। उन्होंने आहुतियां देते समय देवो के साथ-साथ दैत्यों का नाम भी लेना आरम्भ कर दिया।
यज्ञ समाप्त हुआ, लेकिन उसका कोई लाभ देवो को न मिला। इस पर देवराज इंद्र ने विश्वरूप से कहा, “मुनिवर ! इतने बड़े यज्ञ का कोई अच्छा सुफल नहीं मिला। देवताओ की शक्ति में तो किंचित भी बदलाव नहीं आया। वे तो जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी है।”
तभी इंद्र का एक गुप्तचर उनके पास पहुंचा, उसने इंद्र को बताया, “यज्ञ का सुफल कैसे मिलता देवराज। मुनिवर देवो के साथ-साथ दैत्यों को भी तो आहुतियां देते रहे है। इस यज्ञ का जितना लाभ देवो को मिला है उतना ही दैत्यों को भी मिला है।”
गुप्तचर के मुख से यह समाचार सुनकर इंद्र गुस्से से भर उठे। उन्होंने तलवार निकाल ली और ऋषि विश्वरूप पर झपटे, “ढोंगी ऋषि। तूने देवो के साथ विश्वासघात किया है। यज्ञ देवो ने कराया और तू आहुतियां अपने मातृकुल के लोगो को देता रहा। अब मैं तुझे जीवित नहीं छोडूंगा।” कहते हुए उसने तलवार के एक ही वार से विश्वरूप के तीनों सिर काट दिए।
इंद्र द्वारा एक ब्राह्मण की यज्ञस्थल पर ही हत्या किए जाने की सर्वज्ञ निंदा होने लगी। देवो के साथ-साथ ऋषि-मुनि और ब्राह्मण भी उसे धिक्कारने लगे, “इंद्र तू हत्यारा है-तूने ब्रह्म हत्या की है, तेरे जैसे व्यक्ति को इंद्र पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं। तेरे लिए यही उचित है कि किसी कुएं या बावली में कूद कर अपने प्राणों का विसर्जन कर डाल।” आदि-आदि।
नित्य प्रति की धिक्कार और प्रताड़ना सुनकर इंद्र दुखी रहने लगा। उधर, जब यह समाचार महर्षि त्वष्टा तक पहुंचा तो वे बेहद क्रोधित हुए। गुस्से दहाड़ते हुए बोले, “इंद्र की ऐसी हिम्मत कैसे हुई कि वह मेरे पुत्र का वध करके इन्द्रासन पर बैठा रहे। मैं उसे मिट्टी में मिला दूंगा। मेरे पुत्र की हत्या करने का परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा।”
त्वष्टा उसी दिन यज्ञ करने के लिए बैठ गए। यज्ञ की समाप्ति पर यज्ञ वेदी से एक पर्वत के समान आकार वाला दैत्य प्रकट हुआ। उसके एक हाथ में गदा और दूसरे में शंख था। उसने झुककर ऋषि को प्रणाम किया। ऋषि ने उसको नाम दिया-वृत्रासुर।
“आज्ञा दीजिए ऋषिवर ?” वृत्रासुर ने सिर झुकाकर कहा।
“वृत्रासुर। तुम तत्काल अमरावती जाओ और कपटी इंद्र के साथ-साथ समस्त देवताओं का विनाश कर दो।” महर्षि त्वष्टा ने क्रोध से कांपते हुए आदेश दिया। त्वष्टा का आदेश पाते ही वृत्रासुर वायुवेग से देवलोक की ओर उड़ चला।
वृत्रासुर ने अमरावती में पहुंचकर देवो का विध्वंस करना शुरू कर दिया। जो भी सामने आता, वह निःसंकोच होकर उसका वध कर डालता। उसने अमरावती में ऐसा कोहराम मचाया कि देवता त्राहि-त्राहि कर उठे। इंद्र अपने ऐरावत पर चढ़कर उसके सामने पहुंचा और उस पर वज्र प्रहार किया, किन्तु वृत्रासुर ने एक ही झटके में उसके हाथ से वज्र छीनकर दूर फेंक दिया। इस पर इंद्र ने उस पर आग्नेय अस्त्रों से आक्रमण किया, किन्तु उनका किंचित भी असर वृत्रासुर पर न हुआ। किसी खिलौने की तरह उसने इंद्र के हाथ से उसका धनुष छीन लिया और उसे तोड़कर एक और फेंक दिया। फिर वह अपना भयंकर मुख खोलकर इंद्र को खाने के लिए उसकी ओर झपटा। यह देखकर इंद्र भयभीत हो गया और ऐरावत से कूद कर अपनी जान बचाने के लिए भाग निकला। पीछे वृत्रासुर अपने भयंकर अट्टहासों से अमरावती को गुंजाता रहा।
देवराज भागकर सीधे पहुंचे विष्णुलोक में भगवान विष्णु के पास।
“रक्षा कीजिए देव। देवताओं को बचाइए।” उसने आर्त्त स्वर में भगवान से विनती की, “देवो को वृत्रासुर के कोप से बचाइए अन्यथा वह समस्त देवजाति का विनाश कर डालेगा।”
यह सुनकर भगवान विष्णु ने भी उसे धिक्कारा। कहा, “इंद्र। एक ब्राह्मण, और वह भी ऐसा जो तुम्हारे यज्ञ का संचालन कर रहा हो, उसका यज्ञस्थल पर ही वध करके तुमने समस्त देवजाति को कलंकित कर दिया। तुमने अक्षम्य अपराध किया है। महर्षि त्वष्टा ने तुम्हारे लिए उचित ही दंड का निर्णय किया है।”
“मुझे अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हो रहा है, प्रभु। मैं उस समय क्रोध में अंधा हो रहा था, इसलिए ब्रह्म हत्या जैसा पाप कर बैठा। मुझे क्षमा कर दीजिए और मुझे उस महाभयंकर दैत्य से मुक्ति दिलाइए।” इंद्र ने शर्मिंदगी भरे स्वर में कहा।
“देवेंद्र।” श्री हरि बोले, “इस समय मैं तो क्या स्वयं भगवान शिव अथवा ब्रह्मा जी भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। तुम्हारी रक्षा तो पृथ्वी पर एक ही व्यक्ति कर सकता है।”
“वह कौन है देव ?”
“महर्षि दधीचि।” विष्णु बोले, “सिर्फ वे ही तुम्हारी रक्षा कर सकते है। तुम महर्षि दधीचि के आश्रम में जाओ और उन्हें प्रसन्न करके किसी तरह उनके शरीर की हड्डियां प्राप्त कर लो। फिर उन हड्डियों से वज्र बनाकर यदि तुम वृत्रासुर से युद्ध करोगे तो विजयश्री तुम्हें ही मिलेगी।”
भगवान विष्णु का परामर्श मानकर इंद्र दधीचि के आश्रम में पहुंचा। महर्षि दधीचि उस समय समाधि लगाए बैठे थे। उनकी कामधेनु उनके निकट खड़ी थी। इंद्र महर्षि की समाधि भंग होने की प्रतीक्षा करने लगा। फिर जब महर्षि ने अपनी समाधि भंग की तो उनकी दृष्टी करबद्ध खड़े इंद्र पर पड़ी। महर्षि ने हंसते हुए पूछा, “देवेंद्र ! आज इस मृत्युलोक में तुम्हारा आगमन क्योकर हुआ ? देवलोक में सब कुशल से तो है ?”
“कुशलता कैसी महर्षि।” इंद्र ने शर्मसार होते हुए कहा, “देवो के दुर्दिन आ गए है। वृत्रासुर के भय से देव अमरावती छोड़कर जंगलों और गिरिकन्दराओ में छिपते फिर रहे है।”
फिर महर्षि के पूछने पर इंद्र ने सारी बाते उन्हें बता दी। सुनकर दधीचि बोले, “यह तो बड़ी अशुभ बाते बताई तुमने, देवेंद्र। अब इनका निराकरण कैसे हो ?”
“महर्षि ! मैं भगवान विष्णु के पास गया था।” इंद्र बोला, “उन्होंने परामर्श दिया है कि यदि आप प्रसन्न होकर मुझे अपनी हड्डियो का दान दे दे और उनसे वज्र बनाकर यदि वृत्रासुर से युद्ध किया जाए तो वह दैत्य उस वज्र के प्रहार से मर सकता है। हे ऋषिश्रेष्ठ। देवो पर कृपा करके अपनी अस्थियों का दान दे दीजिये।”
“देवेंद्र !” महर्षि दधीचि बोले, “यदि मेरी अस्थियों से मानव और देव जाति का कुछ हित होता है तो मैं सहर्ष अपनी अस्थियों का दान देने के लिए तैयार हूं।”
तत्पश्चात अपने शरीर पर मिष्ठान का लेपन करके महर्षि समाधिस्थ होकर बैठ गए। कामधेनु ने उनके शरीर को चाटना आरम्भ कर दिया। कुछ ही देर में महर्षि के शरीर की त्वचा, मांस और मज्जा उनके शरीर से विलग हो गए। मानव देह के स्थान पर सिर्फ उनकी अस्थियां ही शेष रह गई।
इंद्र ने उन अस्थियों को श्रद्धापुर्वक नमन किया और उन्हें ले जाकर उन हड्डियों से ‘तेजवान’ नामक वज्र बनाया। तत्पश्चात उस वज्र के बल पर उसने वृत्रासुर को ललकारा। दोनों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन वृत्रासुर ‘तेजवान’ वज्र के आगे देर तक टिका न रह सका। इंद्र ने वज्र प्रहार करके उसका वध कर डाला। देवता उसके भय से मुक्त हो गए.....
शत-शत नमन..
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