"ढिबरी" या फिर "दिया"...या भारतवर्ष की आँखें, कुछ भी कह सके है ..
बहुत समय तक इसने भारत के गांवों , गलियों को अंधकार से प्रकाशमय रास्ते की ओर अग्रसर करने का कार्य किया और अभी कर रही है।
ग्रामीण भारत के बच्चे इसी के प्रकाश में अपना अध्ययन करते थे। इसकी रोशनी में वो दम था कि जूट की बोरी में बैठ कर न्युटन के तीनों नियम और पाइथागोरस की प्रमेय हम आसानी से हल कर लेते थे। 
जैसे ही शाम होती घर की सारी ढिबरियां एक जगह इकट्ठी हो जाती और उसमें घासलेट डालने की प्रक्रिया के उपरांत उनको जलाकर सभी कमरों में पहुंचा दिया जाता था । हांलाकि इसमें ज्यादा घासलेट नहीं लगता ..एक बार 250 ml की शीशी भरलो दो से तीन दिन आराम से चल जाता था.

आज भी न जाने कितनो की जिंदगी में उजाला इसी ढिबरी से आता है... न जाने कितनों मांओं को आज भी अपने बेटों की मेज की ढिबरी के तेल की चिंता खाये जाती है।
मेट्रो सिटीज़ के युग मे भी ग्रामीण अंचल के तमाम लोग आज भी डिबरी का इस्तेमाल करते है...आज़ाद




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