"लगभग दो-ढाई हज़ार वर्ष पहले भारत से एक भिक्षु चीन गया और चीन हमारा हो गया था , शायद ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि तब के चीन के लिए अपनी परिधि के विस्तार के लिए सीमा के विस्तार से अधिक अपने ज्ञान का विस्तार अधिक महत्वपूर्ण था;
हमने चीन की भूमि को नहीं बल्कि चीन के लोगों के ह्रदय को जीता था पर पता नहीं क्यों आज या तो भारत ने अपना ज्ञान खो दिया या चीन ने अपनी जिज्ञासा जिसके चलते अपनत्व के भाव से अधिक अधिपत्य का अहंकार हावी होता दिख रहा है।
अहंकार के लिए सत्य को देख पाना असंभव है, इसीलिए, स्वयं की श्रेष्टता के मिथ्या आत्म अभिमान से ग्रसित मानसिकता के लिए सत्य की स्वीकृति समस्या होती है क्योंकि उसका प्रयास स्वयं को सही सिद्ध करने पर ही केंद्रित होता है। फिर बात चाहे व्यक्ति की करें या राष्ट्र की।
किसी भी राष्ट्र को अपनी अखंडता की रक्षा का अधिकार प्राप्त होता है पर जब सभी पडोसी राष्ट्रों के साथ सामन रूप से सीमा का विवाद हो, तो समस्या सीमा पर नहीं बल्कि राष्ट्र के नेतृत्व की मानसिकता में होती है। चीन की विस्तारवादी नीति के विषय में यदि चीन नहीं सोचेगा तो विश्व समुदाय को तो सोचना ही पड़ेगा; आखिर चीन का ऐसा कौन सा पडोसी राष्ट्र है जिसके साथ चीन का सीमा विवाद नहीं, ऐसे में, चीन की जनता को सोचना है की वो अपने राष्ट्र को कैसे बड़ा बनाना चाहते हैं।
जहाँ तक भारत का सवाल है तो हमें किसी की भूमि को जीतकर अपना विस्तार करने में कोई रूचि नहीं , हम शांति प्रिय हैं और युद्ध के पिपासे भी नहीं पर इसका यह तात्पर्य नहीं की हम आत्म रक्षा के योग्य भी नहीं, हमें हमारे राष्ट्र की रक्षा करने के लिए जो कुछ भी करना पड़े , हम उसके लिए तैयार हैं , फिर चाहे तो पूरा चीन ही सीमा पर लड़ने क्यों न आ जाए , हम पीछे नहीं हटेंगे .
भय द्वारा किसी का ह्रदय नहीं जीता जा सकता, भले ही हमारे पास संसाधनों का आभाव हो पर हमारे साहस और शौर्य में कोई कमी नहीं, और इसलिए, वर्त्तमान के सन्दर्भ में कई ऐसे विषय हैं जिनमें भारत और चीन के राजनायकों को बैठकर विचार- विमर्श करने की आवश्यकता है।
अगर पकिस्तान अधिकृत कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश व् सिक्किम को चीन भारत का अंग नहीं मानता तो हमें भी एक चीन की नीति पर विचार करनी होगी।
अगर सचमुच क्षेत्र के व्यापार और आर्थिक विकास के प्रति चीन प्रतिबद्ध है तो हम उनका स्वागत करते हैं और अपनी पूरी सहभागिता का आश्वासन भी देते हैं, पर आज जब भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजार बना दिया गया है, ऐसे में, अगर व्यवसाय अथवा आर्थिक विकास चीन के लिए महत्वपूर्ण होता तो भारत के प्रति उसका दृष्टिकोण कुछ और होता।
चूँकि भारत विस्तारवादी नहीं, इसलिए, चीन को भारत से किसी भी तरह का कोई खतरा नहीं, पर भारत अपनी अखंडता की सुरक्षा के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है, फिर इसके लिए जो कुछ भी करने की आवश्यकता होगी किया जाएगा।
जहाँ तक पाक अधिकृत कश्मीर पर सीमा रेखा पर निरंतर हो रहे युद्ध विराम के उल्लंघन का सवाल है, तो यदि, सीमा रेखा पर युद्ध न होते हुए भी भारतीय सैन्य बल को अपने वीर सिपाहियों की बलि देनी पड़ेगी तो इससे बेहतर यही होगा की बार बार युद्ध विराम के उल्लंघन और सैन्य घर्षण से निवृत होने के लिए, एक बार हमेशा के लिए पाक अधिकृत कश्मीर को ही कश्मीर से मिला दिया जाए ; न रहेगी बांस, न बजेगी बांसुरी।

वर्त्तमान के सन्दर्भ में, भारत व्यवस्था परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा है, ऐसे में, हम सभी पडोसी व् मित्र राष्ट्रों से यह अपेक्षा करते हैं की इस प्रक्रिया में महत्व के लिए सहायक बने न की समस्या; चीन और भारत के सम्बन्ध में बेहतर यही होगा की दोनों राष्ट्र समस्याओं से अधिक संभावनाओं को महत्वपूर्ण बनाएं, एक दुसरे की चिंताओं को समझते हुए कोई परिपक्व हल तक पहुंचे; एक छोटे से अहंकार के लिए युद्ध कर अनमोल जान-माल की क्षति और संबंधों के क्षय को बुद्धिमानी नहीं कही जायेगी।

अपने को बड़ा करने के लिए सीमाओं का विस्तार ही एक मात्र विकल्प नहीं, यह बात आज चीन को समझनी होगी। ऐसी परिस्थिति में, आपसी गतिरोध को दूर करते हुए एक दुसरे के साथ व्यापारिक संबंधों का विकास करते हुए क्षेत्र की प्रगति सुनिश्चित करना है या युद्ध द्वारा क्षेत्र के विध्वंश का कारन बनना है, निर्णय के लिए यही दो विकल्प है, जैसा निर्णय, वैसी नियति !"

आज़ाद


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