मैं उस औरत से प्यार करना चाहता था

जो मेरे बैठने के बाद बैठती है
मेरे खाने के बाद खाती है
कितना लज़ीज़ खाना बनाती है
बनाती ही जाती है,थकती भी नहीं
पड़ी है बग़ल में किसी ख़याल की तरह
उस औरत से प्यार करना चाहता था।

उसऔरत से प्यार करना चाहता था
उपले थापती, थपथप में कौन सा राग गाती
भींगी लकड़ी से आग जलाती
धुंवा-धुंवा होती परेशान-सी 
उस औरत से 
मैं प्यार करना चाहता था।

उस औरत से प्यार करना चाहता था
जो कितने मर्दों की आँखों और देह की छुअन
से ख़ुद को बचाती हुई अभी-अभी बस से उतरी है
घर आएगी,पसर जाएगी,उब कर उठ जाएगी
थकान भरी मुस्कान से बच्चे को दुलराएगी
गाएगी नहीं सिर्फ़ गुनगुनाएगी
उस औरत से प्यार करना चाहता था।

मैं चाहता था खिड़की पर 
दरवाज़ों के पर्दे लगाने पर 
वह मुझे फटकारे
लेकिन वह चाहती दाल में नमक 
कम होने पर मैं उसे फटकारता जाऊँ
थक जाने पर उम्र की थकान होने 
पर भी वह 
मेरी फटकार सुनती जाती है 
खिसियानी-सी हँसी के साथ
ज़बरन प्यार करने पर 
मैं चाहता कि
वह रोके कहे 
काहे करत मोसे बरजोरी
पेड़ की हिलती डालियों- सी हिलती रहती
कुछ नहीं कहती
वह
हमेशा हमेशा ही जीतती जाती 
उस औरत से प्यार करना चाहता था।

उस औरत से प्यार करना चाहता था
जिसने इस पृथ्वी का पहला स्पर्श करायाथा
अपने स्तन मुँह में ठूँसते हुए
शायद इसीलिए आदमी की पहली पसंद ही 
औरत के स्तन होते हैं 
और मरते दम तक 
अंतिम पसंद भी 
मैं उस औरत से प्यार करना चाहता था।

मैं उस औरत से प्यार कना चाहता था
उसके चेहरे को सहलाते हुए
खो जाना चाहता है , भूल जाना चाहता था
दुनियाँ - जहाँ के अफ़साने
डूबना चाहता था 
उसकी आँखों के इतराते समंदर में
धन्य होना चाहता था 
उसकी कानों की लौ को छूकर
उड़ जाना चाहता था उसकी 
ज़ुल्फ़ों की आँधियों में
उसकी पीठ पर पसर जाना चाहता था
उसकी अंगुलियाँ पकड़ कर खो जाना चाहता था
उसकी गर्दन से सीढ़ियां उतरते हुए
उसके स्तनों पर ठहर जाना चाहता था
किसी आदिम सुरंग- सी उसकी नाभि
उसकी जाँघों में उतरते हुए, 
खो जाऊंगां,
समा जाऊंगां,चला जाऊंगां
लौट कर नहीं आऊंगां
उस औरत को औरत की तरह पाना चाहता था
मैं उस औरत से प्यार करना चाहता था।

उस औरत से प्यार करना चाहता था
मैंने जिसे औरत रहने नहीं दिया
वह औरत रह नहीं पाई
पहली पसंद होने के बावजूद
सलामत नहीं रह पाई
टूटती गई, बिखरती गई,फिर भी 
अपने को सहेजती गई
कितना कुछ सहेजना होता है
कभी माँ होती है,
कभी पत्नी भी साथ ही होना होता है
कभी-कभी तो औरत ही नहीं रह पाती
सब जानते हुए भी कितने लाचार हैं लोग
बेशक़ीमती समान तो सहेजते जाते हैं
बेशक़ीमती औरत खोते जातेहैं।

सुबह की चाय से उठती भाप- सी
भीमसेन जोशी की राग वृंदाबनी सारंग में 
लय- ताल - सी 
फैलती पसरती काँपती- सी
उस औरत से 
मैं प्यार करना चाहता था ।।


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